कुचामन सिटी। (तेजल ज्ञान नागौर ब्यूरो/दिनेश कड़वा)
भारत वर्ष में सदियों से चली आ रही एक मृत्युभोज की बीमारी कोरोना संक्रमण से भी ज्यादा गंभीर नजर आ रही है। आज के दौर में आधुनिक भारत के लोग बड़ी बड़ी बाते करते है। हर इंसान का शोक होता है स्वयं के पास अच्छा मकान हो, अच्छी गाड़ी हो, अच्छा पैसा हो तथा साथ ही समाज मे अच्छी पकड़ हो, ये सब तो ठीक है। अगर ऐसी सोच रखते है तब तो हर समाज का उत्थान भी होगा। हर समाज आगे बढ़ेगा। आज के दौर में शिक्षित वर्ग का अच्छा प्रभाव है। लेकिन जब बात करे हर समाज मे पुराने समय से फैली सामाजिक बुराईयों को छोड़ने की तो अभी तक कोई नही छोड़ रहा। आज भी प्रत्येक समाज मे कही न कही सामाजिक बुराईयों का खासा प्रभाव है। और उन सबको सबसे ज्यादा बढ़ावा देने में उन पेशेवर लोगो का भी कही न कही हाथ है जो दिखावे के चक्कर मे गरीब तबके के लोगो को आज इस आर्थिक संकट काल में मजबूर कर रहे है। आज शादी ब्याह में कई समाजों में लोग अपने आपको ऊंचा दिखाने के लिये बढ़कर खर्चा करते है, पैसे को पानी की तरह बहाते है, पास में बसे पड़ोसी के घर दो वक्त का आटा नही हो और ऐसे लोग समाज मे रहकर सिर्फ अपने दिखावे के चक्कर मे सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा देते है। इन लोगो को पता होने के बाद भी ऐसा करते है, और हमेशा अपने पड़ोसी को नीचा दिखाने की कोशिश करते है। अब हम बात करे एक सामाजिक बुराई जिसको लेकर इस कोरोना काल मे भी समाज के ठेगेंदारो की वजह से पीछा नही छोड़ा। जी हां हम बात कर रहे है मृत्युभोज जैसी सामाजिक बुराई की जिसको लेकर आज कोरोना काल मे जितना डर कोरोना का नही लग रहा कही उससे ज्यादा अब मृत्युभोज का लग रहा है। आज भी ग्रामीण भारत मे लोग मृत्युभोज को बन्द नही कर रहे है। जिसमे सबसे बड़ा मुख्य कारण है। कुछ परिवार व समाज मे ऐसे लोग जो अगर किसी के परिवार में मौत हो जाती है तो एकादशा व द्वादशी को मृत्यु भोज को जान बूझकर करवाते है। पीड़ित परिवार को मजबूर करते है कि जब हमारे घर पहले ऐसा हुआ था तो हमने भी परिवार व समाज को खाना खिलाया था। इसलिए ये सब आपको भी करना जरूरी है। यहाँ तक नही बात और भी आगे बढ़ जाती है। मृत्युभोज के अलावा फिजूल में लाखों रुपयों के कपड़े का चलन भी अभी तक कायम कर रखा है जिसको लेकर मौत किस परिवार में हो रही है तथा उनके रिश्तेदार लोग जब एकादशी व द्वादशी को उनके घर आते है तब मृत्युभोज के बाद कपड़े लेनदेन का भी काफी चलन है। ये सब ऐसे परिवार व समाज मे होता है जहाँ आज के दौर में पढ़े-लिखे व पेशेवर लोग रहते है। इन लोगों की मनमानी से समाज मे गरीब परिवारों को भी ये सब करने के लिये प्रताड़ित किया जाता है। वैश्विक कोरोना महामारी भारत मे भी तेजी से फैल रही है। प्रशासन व सरकार बार बार आग्रह कर रही है ऐसे आयोजन कोरोना काल मे नही करें लेकिन जिस तरह भीलवाड़ा, नागौर सहित कुछ जिलों में ऐसे आयोजन को लेकर कोरोना के मामले तेजी से फैले। अभी पिछले दिनों नागौर जिले में मकराना, तोषिना के पास किसी मौत के बाद बैठक का आयोजन रखा जिसमे कुछ कोरोना संक्रमण के मामले सामने आये। नागौर पुलिस अधीक्षक श्वेता धनकड़ ने राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960 की पालना करवाने के सम्बन्ध में मृत्यु भोज बंद करने का प्रावधान, पंच सरपंच, पटवारी तथा ग्राम सेवक इन लोगों को जिम्मेदारी सौपी। एसपी नागौर ने बताया कि यदि यह सूचित नहीं करेंगे तो इनके ऊपर कानूनी कार्यवाही की जाएगी।

मृत्यु-भोज जिसमें, गंगा-प्रसादी इत्यादि शामिल है अब ”राजस्थान मृत्यु-भोज निषेध अधिनियम 1960” के तहत दण्डनीय अपराध हो गया है।
मृत्यु-भोज की कानून में परिभाषा
राजस्थान मृत्यु-भोज निषेध अधिनियम की धारा 2 में लिखा है कि किसी परिजन की मृत्यु होने पर, किसी भी समय आयोजित किये जाने वाला भोज, नुक्ता, मौसर, चहलल्म एवं गंगा-प्रसादी मृत्युभोज कहलाता है कोई भी व्यक्ति अपने परिजनों या समाज या पण्डों, पुजारियों के लिए धार्मिक संस्कार या परम्परा के नाम पर मृत्यु-भोज नही करेगा।

मृत्यु-भोज करने व उसमें शामिल होना अपराध है :-
धारा 3 में लिखा है कि कोई भी व्यक्ति मृत्यु-भोज न तो आयोजित करेगा न जीमण करेगा न जीमण में शामिल होगा न भाग लेगा।
मृत्यु-भोज करने व कराने वाले की सजा व दण्ड :-
धारा 4 में लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति धारा 3 में लिखित मृत्यु-भोज का अपराध करेगा या मृत्यु-भोज करेन के लिए उकसायेगा, सहायता करेगा, प्रेरित करेगा उसको एक वर्ष की जेल की सजा या एक हजार रूपये का जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जायेगा। मृत्यु-भोज पर कोर्ट से स्टे लिया जा सकता है। अत: सभी बुद्धिजीवियों का कृर्त्तव्य है कि मृत्यु-भोज को रूकावे न मानने पर कोर्ट से स्टे लेवे एवं मृत्यु-भोज करने व कराने वालो को दण्डित करावें। इस देश का जन सामान्य, भोले-भाले, अनपढ़, रूढ़ीवादी धर्मभीरू श्रमजीवी वर्ग के लोग स्वर्ग-मोक्ष के अंधविश्वासी कर्मकाण्डों में सस्कारों में जीवन भर फंसे रहते है, ये संस्कार, कर्मकाण्ड इनके काले-भालू रूपी कम्बल की भांति लिपट गये है जो छोडना चाहने पर भी नहीं छूटते है है बल्कि गरीबों-कंगाली व बर्बादी के गर्त में डूबों रहे हैं।