कौन व्यक्ति कैसा है यह इसकी सही पहचान उसके रंग-रूप-जाति से नहीं, वरन उसके जीवनगत संस्कार से होती है। व्यक्ति के संस्कार ऊँचे हो तो छोटा होकर भी उच्च आदर्श को स्थापित कर जायेगा। यदि व्यक्ति पर संस्कार निम्न है तो उसके ऊँचे कुल में पैदा होकर भी कुलिनता पर व्यंग ही होगा। नजरिया बदलना होगा, सही नजरिये के लोग चमड़ी के रंग या फैसन पर ध्यान नहीं देते वे सदा गुण और संस्कारों को ही महत्व देते है।जीवन संस्कारों से संतुलित होता है। सुखी और व्यवस्थित होता है।
व्यक्ति की पहचान :-
कौन कैसा भी यदि यह पहचान करनी है तो उसके संस्कारों को जानो। संस्कार व्यक्ति का सही मूल्यांकन करवाता है। संस्कार जीवन की नीव है जीने की संस्कृति है यही व्यक्ति की मर्यादा ओर उसकी गरिमा है। संस्कारों ने व्यक्ति को सदा सुखी ही किया और जो संस्कारों को महत्व नहीं देता है। उसे अन्नत: पछताना ही पड़ा है।
संस्कारों का सम्बन्ध :-
संस्कारों का व्यक्ति के साथ ऐसा सम्बन्ध है जैसा जल का जमीन के साथ। व्यक्ति के कुछ संस्कार तो उसके अपने होते है। हम जीवन को उसकी गहराई तक जाकर देखते है तो बोध होता है कि हर व्यक्ति अन्नत: संस्कारों का ही एक पुतला है। व्यक्ति एक जन्म का नहीं जन्म जन्मान्तर के संस्कारों का परिणाम है। व्यक्ति जो कुछ होता है, करता है वह सब उसके भीतर इस जन्म के और पूर्व जन्म के संस्कारों का एक प्रवाह गतिशील रहता है। वर्तमान में व्यक्ति जो कुछ भी कहता है, करता है उसके पीछे पूर्वगत संस्कार और वर्तमान संस्कारों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है।
जीवन बनाने में दो मुख्य कारण है :-
१. संस्कार २. संगती संस्कार का असर रहता है परन्तु संगती का प्रभाव पड़ता है। राम का जीवन आदर्श था क्योंकि उनके ऊपर संस्कार तो थे परन्तु संगती भी अच्छी थी। संस्कार और संगती दोनों अच्छी मिल जाये तो फिर क्या कहना-व्यक्ति महान हो जाता है। एक पिता वह होता है जो सन्तान को केवल जन्म देता है, दूसरा पिता वह होता है जो अपनी सन्तान को सही संस्कार देता है। जन्म देने वाला पिता भूला दिया जाता है, सम्पत्ति देने वाले झगड़े की नीव रख जाते है परन्तु संस्कार देने वाले पिता-पिता-पिता ही नहीं गुरु का ही दायित्व निभा लेते है। विकास किसका हो-संस्कारों का या भौतिकता का ? संस्कारों का क्योंकि भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान एवं पुनर्जन्म को मानने वाली है। आध्यामिक दर्शन का मानना है कि व्यक्ति के कर्म उसकी आत्मा के साथ बन्ध जाते है उन्हीं कर्मों के अनुसार पुर्नजन्म होता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति कर्म रूपी संस्कार लेकर जन्म लेता है। इसके व्यक्ति का स्वभाव या प्रकृति भी कहते है। प्रकृति को संस्काररित करने का नाम ही तो संस्कृति है। जो प्रकृति हम जन्मजात लेकर पैदा होते है उनमें कुछ अच्छाईयाँ और कुछ बुराईयाँ होती है। उन प्राकृतिक तत्वों को संस्कारित करने की आवश्यकता होती है अच्छाईयों को संर्विद्धत करना और बुराईयों का परिमार्जन करना ही संस्कार है। संस्कार भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के होते है। भौतिक संस्कार शीघ्रगामी व दृष्टिगम्य है लेकिन आध्यात्मिक या नैतिक संस्कार शनै: शनै: समाहित होते है। भारतीय संस्कृति में गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सोलह संस्कार का विशेष वर्णन आता है।
संस्कार:-
भारत देश एक आदर्श देश है। सारे विश्व में भारत का अपना एक स्थान है। सबसे हटकर इस देश का अस्तित्व है, क्यों? क्योंकि यहाँ संस्कार और त्याग को महत्व दिया जाता है संस्कार और संस्कृति का बड़ा बेजोड़ सम्बन्ध है जो संस्कार के बिना ही संस्कृति को जीवित रखना चाहता है वह तो ऐसा है जैसे पानी के बिना बाग को सलामत रखना पानी से ही बाग हरा-भरा रहता है, फला-फुल कि रहता है उसी प्रकार मनुष्य जीवन रूपी बाग संस्कार रूपी जल से ही फला-फुला रहता है। जीवन में संस्कार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जिस प्रकार नीव के बिना इमारत टिक नहीं सकती उसी प्रकार संस्कार जीवन की नीव है। जैसा संस्कार होगा वैसा जीवन बनेगा। जीवन का निर्माण-भाग्य, पुरुषार्थ, संस्कार, संगती ये चार आधारभूत स्तम्भ है। इनमें से संस्कार अपने आप में बड़ा अहम-भूमिका अदा करता है।