।।जय श्री श्याम।।
हमारे जीवन में बहुत सी स्थितियों के संबंध दूसरों के साथ कैसे हैं? हमारे अंदर की बातचीत का स्वरूप कैसा है। हमारा दूसरों के साथ, मित्र, परिवार जनों या सहकर्मी के साथ कैसा बर्ताव है। हम दूसरों के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते हैं? वह भी कुछ हद तक हमारे भीतर की सोच का नतीजा है। जब हम इस ज्ञान शक्ति से जीना सीख लेते हैं तो हम किसी और को दोषी नहीं ठहराएंगे। आमतौर पर हम दूसरों को हर बात के लिए दोषी ठहरा देते हैं। आम आदमी के जीवन संघर्ष की कहानी किसी रोमांच से कम नहीं है। लेकिन इसका रास्ता कठिन है। जो इसे पार कर लेता है, वह मजबूत हो जाता है। उसे फिर इससे भी बड़ी चुनौती मिलती है। जीवन में हर चुनौती एकदम नई और रोमांचक होती है। यह चुनौती बड़े-बड़े शूरमाओं को चूर चूर कर देती है। लेकिन सबको नहीं, कुछ होते हैं जो हारने के लिए पैदा ही नहीं हुए होते। वे जीवन को खेल मान कर, उसके सुख-दुख के दोनों पहलुओं को अंत तक खेल की तरह खेल लेते हैं। हमारा जीवन सुख-दुख का मेल है। जीवन में सुख और दुख धूप-छांव की तरह आते-जाते रहते हैं। कभी सुख की शीतल सुगंध की फुहारें उड़ती हैं तो कभी दुख की जलती-बिखरती चिनगारियां फैलती हैं। सुख के पल यों फिसल जाते हैं कि पता ही नहीं चलता। सुख की सदियां ऐसे गुजर जाती हैं जैसे अभी अभी घटित हुई थीं, पर दुख के पल काटे नहीं कटते। सुख के तो पर होते हैं और वह उड़ जाता है। जो सफलतापूर्वक दुख के दरिया को पार कर लेता है, वही शूरवीर कहलाता है। कमजोर इसमें डूब जाते हैं और बहादुर पार चले जाते हैं। अनुभवी कहते हैं कि बुरे समय में वाणी का प्रयोग कम से कम कर देना चाहिए। कोई भी समस्या जिससे सर्वाधिक रूप से प्रभावित होती है, वह है वाणी। बुरे समय में व्यक्ति इतनी घुटन और असहजता अनुभव करता है कि वह अपनी पीड़ा बोलकर प्रकट करना चाहता है। इसलिए केवल अपनों के बीच ही अपने दुख दर्द बांटने चाहिए। खराब दौर से गुजर रहे व्यक्ति को कभी उसके तकलीफदेह मंजर की याद नहीं दिलानी चाहिए। उसके सामने उसके खराब समय की भयावहता का उल्लेख नहीं करना चाहिए। ऐसे में वह आत्मविश्वास खो बैठता है और अवसाद से घिर जाता है। किसी दूसरे की परेशानी दूर करना इंसान का सबसे बड़ा धर्म है। इस धर्म का पालन कुशलता से करना चाहिए। संवेदनशीलता ही ऐसा गुण है जो इस काम के लिए तत्पर रहता है। संवेदनहीन व्यक्ति किसी दूसरे की पीड़ा को कभी अनुभव नहीं कर सकता। यह इंसान में सबसे बड़ा गुण है। इसी कारण उसे दूसरों का दर्द अपने जैसा लगने लगता है।
आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य का भावनास्तर सार्वभौमिक हो। अपनी सुख-दुःख की अनुभूति का आधार जितना व्यापक होगा उतना ही मनुष्य सुख-दुःख की मोहमयी माया से बचा रहेगा। सबके साथ सुखी रहना सबके साथ दुःखी, अर्थात् सबके सुख में अपना सुख देखना और सबके दुःख में अपना दुःख। इससे मनुष्य न तो सुख में पागल बनेगा न दुःख में रोयेगा।
किसी भी प्रकार के सुख की चाह के साथ दुःख का अभिन्न साथ है। उसे तिरोहित नहीं किया जा सकता। अस्तु सुख-दुःख की सीमा से ही परे हो जाना इसके रहस्य को जान लेना है। और यह आत्म केन्द्रित होने पर ही सम्भव है। आत्मस्थ व्यक्ति के लिए न कोई सुख होता है न कोई दुःख। हमें सुख दुःख की सीमा से ऊपर उठने के प्रयास प्रारम्भ कर देने चाहिए।