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संपादकीय-समाज सुधार कैसे हो?

“पहले स्वयं सुधरो, फिर दुनिया को सुधारना” एवं “क्या करें दुनिया ही ऐसी है”। वस्तुतः यह दोनो कथन विरोधाभासी है। या यह कहें कि ये दोनो कथन मायावी बहाने मात्र है। स्वयं से सुधार इसलिए नहीं हो सकता कि दुनिया में अनाचार फैला है, स्वयं के सदाचारी बनने से कार्य सिद्ध नहीं होते और दुनिया इसलिए सदाचारी नहीं बन पा रही कि लोग व्यक्तिगत रूप से सदाचारी नहीं है। व्यक्ति और समाज दोनों परस्पर सापेक्ष है। व्यक्ति के बिना समाज नहीं बन सकता और समाज के बिना व्यक्ति का चरित्र उभर नहीं सकता। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत सुधार के लिए सुधरे हुए समाज की अपेक्षा रहती है और समाज सुधार के लिए व्यक्ति का सुधार एक अपरिहार्य आवश्यकता है।

ऐसी परिस्थिति में सुधार की हालत यह है कि ‘न नौ मन तैल होगा, न राधा नाचेगी’। तो फिर क्या हो?……

“उपदेश मत दो, स्वयं का सुधार कर लो दुनिया स्वतः सुधर जाएगी।” हमें जब किसी उपदेशक को टोकना होता है तो प्रायः ऐसे कुटिल मुहावरों का प्रयोग करते है। इस वाक्य का भाव कुछ ऐसा निकलता है जैसे यदि सुधरना हो तो आप सुधर लें, हमें तो जो है वैसा ही रहने दें। उपदेश ऐसे प्रतीत होते है जैसे उपदेशक हमें सुधार कर, सदाचारी बनाकर हमारी सदाशयता का फायदा उठा लेना चाहता है। यदि कोई व्यक्ति अभी पूर्ण सदाचारी न बन पाया हो, फिर भी नैतिकताओ को श्रेष्ठ व आचरणीय मानता हुआ, लोगो को शिष्टाचार आदि के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर सकता?

निसंदेह सदाचारी के कथनो का अनुकरणीय प्रभाव पडता है। लेकिन यदि कोई मनोबल की विवशता के कारण पूर्णरुपेण सदाचरण हासिल न कर पाए, उसके उपरांत भी वह सदाचार को जगत के लिए अनुकरणीय ग्रहणीय मानता हो। दुनिया में नैतिकताओं की आवश्यकता पर उसकी दृढ आस्था हो, विवशता से पालन न कर पाने का खेदज्ञ हो, नीतिमत्ता के लिए संघर्षरत हो और दृढता आते ही अपनाने की मनोकामना रखता हो, निश्चित ही उसे सदाचरण पर उपदेश देने का अधिकार है। क्योंकि ऐसे प्रयासों से नैतिकताओं का औचित्य स्थापित होते रहता है। वस्तुतः कर्तव्यनिष्ठा और नैतिक मूल्यों के प्रति आदर, आस्था और आशा का बचे रहना नितांत ही आवश्यक है। आज भले एक साथ समग्रता से पालन में या व्यवहार में न आ जाय, यदि औचित्य बना रहा तो उसके व्यवहार में आने की सम्भावना प्रबल बनी रहेगी।

समाज से आदर्शों का विलुप्त होना, सदाचारों का खण्डित होना या नष्ट हो जाना व्यक्तिगत जीवन मूल्यों का भी विनाश है। और नैतिकताओं पर व्यक्तिगत अनास्था, सामाजिक चरित्र का पतन है।

इसलिए सुधार व्यक्तिगत और समाज, दोनो स्तर पर समानांतर और समान रूप से होना बहुत ही जरूरी है।

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