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महारानी लक्ष्मीबाई के दीक्षा गुरू – संत गंगादास का इतिहास पठनीय – कवि राणा भूपेंद्र सिंह

तेजल ज्ञान दतिया। 18 जून महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर जानना जरूरी है ये बातें।
संत गंगादास वैसे तो किसी परिचय के मोहताज नहीं पर आज की नयी पीढ़ी को उनका इतिहास पढ़ना जरूरी है।
त्यागी संत महापुरुष महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हिंदी साहित्य के पितामह के नाम से प्रसिद्ध गंगादास जी का जन्म 14 फरवरी 1823 को उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले रसूलपुर बहलोलपुर गांव के जाट परिवार मे हुआ था।
महात्मा जी का बचपन का नाम गंगाबक्ष था महज 12 वर्ष की अवस्था मे अनाथ होगये गंगाबक्ष जी धार्मिक पृवत्ति के थे व साफसफाई पर विशेष ध्यान देते थे।
इनकी वुद्धिमता देखकर बुलंदशहर की कुटी के संत विष्णु दास उदासीन ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया था।
1857 की क्रांति मे अग्रदूत रहे संत गंगादास अपनी मातृभूमि से बहुत प्रेम करते थे व अंग्रेजों की दास्तां से मात्रभूमि को मुक्त कराना चाहते थे।
इस समय वे ग्वालियर मे गंगादास की शाला मे रहरहे थे ।
झांसी की रानी से जुड़ाव – संत गंगादास जी महारानी लक्ष्मीबाई के पिता के गुरू थे व लक्ष्मी बाई ने भी इनसे दीक्षा ली युद्धकौशल सीखा गंगादास जी से बहुत से क्रांतिकारी गुप्त रूप से ग्वालियर मिलने आते थे ।
गंगादास जी और झांसी की रानी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये घोड़े पर साथ साथ घूमघूमकर लोगों को जागृत करते थे। रानी लक्ष्मीबाई का सदैव मार्गदर्शन करते रहे ।
रानी लक्ष्मीबाई की हत्या का बदला एवं उनका अंतिम संस्कार
कुछ तथ्य जो दबे रहे – जब वीरांगना युद्ध मे घायल है गयीं तो उन्होंने मरणासन्न अवस्था मे अपने साथियों से कहा कि दुष्ट अंग्रेज हमारे तन को छू न सकें – तब उनके साथी उन्हें उठाकर संत गंगादास की शाला मे ले गये जहां रानी ने हरहर महादेव कहकर उन्हें प्रणाम किया और प्राण त्याग दिये, चूंकि अंग्रेज उसतरफ बढ़ते जा रहे थे डर था कि रानी के शव को छीन न लें।
इधर शव चलाने जव कुछ नहीं दिखा तो संत गंगादास से अपने आश्रम मे बनी कुटिया मे ही उनको लिटा कुटिया की लकडियों से ही अंतिम संस्कार कर दिया।
ग्वालियर मे स्वर्णरेखा के पास बने समाधि स्थल के बगल से ही संत गंगादास का बगीचा है।

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