(जन्म: 10 मई 1914, मुत्यु: 26 अक्तुम्बर 1995)
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किसान वर्ग के शीर्षस्थ नेता
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‘ ज़मीन कींकी?’
‘ बावै बींकी।’
तेजल ज्ञान हरिराम जाट अजमेर। जागीरी ज़ुल्म के दौर में ऐसे सुदृढ़ स्वप्नद्रष्टा और फिर स्वाधीनता संग्राम के बाद सत्ता के गलियारे में अपनी धमक के बलबूते पर इस सँजोए सपने को प्राथमिकता के आधार पर साकार कर देने वाले *_राजस्थान के किसान वर्ग के मसीहा चौधरी कुम्भाराम आर्य को उनकी पुण्यतिथि 26 अक्टूबर पर भावभीनी श्रद्धांजलि!!_*
स्वाधीनता से पूर्व राजस्थान में सदियों से राजशाही, सामंती और साम्राज्यवादी व्यवस्था का तिहरा गठजोड़ विद्यमान था। ‘भू स्वामियों के एक श्रेणी तंत्र ने संपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक ढांचे पर आधिपत्य स्थापित कर रखा था, जिसमें स्वायत्तशासी देशी रियासतों के राजाओं से लेकर बड़ी-बड़ी जागीरों के मालिक तक सम्मिलित थे।’ *_जागीरदारों के प्रश्रय में पोषित अनेक छोटे बिचौलिए भी इस व्यवस्था के उच्चत्तर सोपानों पर प्रतिष्ठित थे।_*
सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर परिश्रमी किसान को धकेल रखा था। दुःसह आर्थिक कठिनाइयों को भुगतते किसान की खून- पसीने की कमाई राजाओं व सामंतों के ख़ज़ानों को समृद्ध कर रही थी। जो जागीदार थे, उनके पास कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यापक शक्तियां समाहित थीं लेकिन रियासत पर शासन राजा का था। जागीरदार अपनी प्रजा के वास्तविक ( de facto ) स्वामी और शासक थे और वे प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते थे। *_अपनी मनमर्जी से भूमि कर (लागबाग) बढ़ाते रहते थे और किसानों द्वारा खेती-बाड़ी के ज़रिए कमाई उनकी रोटी को उनसे छीनकर उन्हें अनाज के दाने-दाने के लिए मोहताज़ कर रखा था।_*
पराधीन, प्रताड़ित, शोषित, दमित, दीन- हीन, अशिक्षा के अंधकार से घिरा, अंधविश्वास और रूढ़ियों के शिकंजे में जकड़ा, कुप्रथाओं और सामंतों के कुचक्रों में फंसा किसान वर्ग जागीरी ज़ुल्म की चक्की में पिसता नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर था। चौधरी कुंभाराम आर्य राजस्थान में स्वतंत्रता सेनानियों की श्रंखला के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। राजस्थान के किसानों को दमन, शोषण व उत्पीड़न के चक्रव्यूह से बाहर निकालने की मुहिम को परवान पर चढ़ाने और फिर उन्हें उनके द्वारा जोते जाने वाले खेतों पर खातेदारी का हक़ दिलाकर उनकी जिंदगी को रोशन करने का श्रेय चौधरी कुम्भाराम आर्य को जाता है। चौधरी कुम्भाराम आर्य एक सफल संगठनकर्ता, कुशल वक्ता, मौलिक चिंतक, निडर व निश्छल नेता, स्वाभिमानी राजनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक थे। राजनीति के क्षेत्र में वे एक जुझारू, अक्खड़, स्पष्टवादी, निडरता से दो- टूक बात कहने वाले नेता थे।
लोकप्रिय किसान नेता
प्रथम राजस्थान विधानसभा के 160 सदस्यों के लिए जनवरी 1952 में हुए चुनाव में चौधरी कुंभाराम आर्य ने चूरू विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट पर अपना नामांकन दाख़िल किया। इसकी भी लंबी कहानी है। उनके विरोधियों ने उन पर सांप्रदायिक होने का बेबुनियाद आरोप लगाया। विवाद बढ़ने पर कांग्रेस आला कमान ने उनकी टिकट छीन ली। परन्तु तब तक नाम वापिस लेने की तारीख़ निकल चुकी थी। आला कमान ने कुम्भाराम जी को चुनाव में अपने लिए पर्चे छपवाने-बंटवाने, अन्य किसी भी प्रकार से प्रचार नहीं करने और चुनाव क्षेत्र में नहीं जाने के लिए पाबंद किया। चौधरी साहब ने नेहरू जी से इस बाबत वादा किया और उसको अक्षरशः निभाया। वे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में खड़े रहे। वे एक बार भी अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं गए और न ही खुद के लिए वोट डालने की अपील मतदाताओं से की। बाबजूद इसके वे भारी मतों से विजय हुए। सामने वाले प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त हो गई। सब परिस्थितियां उनके प्रतिकूल। मीडिया ने उनकी ख़ूब ख़िलाफ़त की। विरोधियों ने दुष्प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन किसान वर्ग उन्हें अपने तारणहार के रूप में स्वीकार करता था। मीडिया, सामंतों, धनपतियों व विरोधियों के गठजोड़ द्वारा चौधरी कुम्भाराम आर्य के ख़िलाफ़ रचे गए समस्त षड्यंत्रों का समुचित ज़बाब उनके क्षेत्र की जनता ने उनको भारी मतों से जीता कर दे दिया। उनकी लोकप्रियता का इससे ज़्यादा पुख़्ता प्रमाण और क्या हो सकता है? चुनाव परिणाम के बाद वे पूरे राजस्थान में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर एक चर्चित शख्सियत के रूप में उभरे। यह जीत उनकी लोकप्रियता को बख़ूबी प्रकट करती है। आज तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जिसने एक बार भी चुनाव क्षेत्र में पदार्पण किए बगैर या मतदाताओं से बिना कोई अपील या वादा किए चुनाव में जीत दर्ज़ की हो।
*👏क्रांतिकारी भूमि सुधार के प्रणेता: -*
प्रथम आम चुनाव से पूर्व ही राजस्थान सरकार ने *”राजस्थान भूमि सुधार और जागीर पुनर्ग्रहण अधिनियम 1952″ पास किया जो 18 फरवरी 1952 ई. को कानून बन गया।* इस कानून के आधार पर बाद में जागीरदारों को मुआवजा देकर उनकी जागीरें जप्त कर ली गईं और *किसान को भूमि का खातेदार बना दिया।*
सुखाड़िया मंत्रिमंडल में 13 नवंबर 1954 को शपथ ग्रहण करने पर चौधरी कुंभाराम आर्य को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। इस अवधि में *जागीरदारी प्रथा पुनर्ग्रहण संशोधन अधिनियम 1954 तथा राजस्थान टेनेंसी एक्ट 1955 पारित किए गए, जिसके परिणामस्वरुप जागीरदारी प्रथा राजस्थान में सदा-सदा के लिए समाप्त हो गई और किसानों को अपने द्वारा जोते जाने वाले खेतों पर खातेदारी का अधिकार बिना कोई मुवावजा चुकाए/ निःशुल्क प्राप्त हो गया। इन कानूनों की गणना भारत के सर्वोत्तम प्रगतिशील भूमि सुधार कानूनों में की जाती है।* ये वो क़ानून थे जिन्होंने सदियों से शोषित और उत्पीड़ित किसानों को जागीरदारों के चंगुल से मुक्त कराकर उन्हें भूमि का खातेदार बनाया। जमीन पर काश्तकारों के हक़ की बात चौधरी कुम्भाराम ने नपे तुले शब्दों मे यूँ कही:-
*’ ज़मीन कींकी? बावै बींकी।’*
किसानों को जागीरदारी से मुक्ति दिलाने और काश्तकारों को खातेदारी का हक़ दिलाने के कारण देहात के बड़े-बुजुर्ग अब भी खातेदारी एक्ट को ‘ कुंभा एक्ट’ के नाम से जानते हैं। कुम्भाराम और किसान पर्यायवाची शब्द बनकर उभरे। मालूम हो कि जागीर उन्मूलन के समय किसान को खातेदारी हक दिलाने के लिए अन्य राज्यों में किसानों से मुआवजा वसूल किया गया। केवल *राजस्थान में बिना किसी मुआवजे के/ निःशुल्क किसानों को खातेदारी हक हासिल हुआ।*
भूमि सुधारों में चौधरी कुम्भाराम आर्य की प्रमुख भूमिका रही है, चाहे टिनेंसी एक्ट हो, चाहे कॉलोनाइजेशन एक्ट या उनके अंतर्गत बने रूल्स, इन सभी की ड्राफ्टिंग में चौधरी साहब के किसान हितैषी विचारों का समावेश था।
*राजस्थान लैंड रिफॉर्म्स , एबोलिशन एण्ड रिजम्पसन ऑफ जागीरदारी एक्ट 1952 और राजस्थान टीनेन्सी एक्ट 1955 वस्तुतः चौधरी कुम्भाराम आर्य के दिशा- निर्देश और सुपरविजन मे तैयार कर क्रियान्वित किए गए।* इन अधिनियमों की कुछ मूलभूत विशेषताएँ ये थीं:
◆ जो काश्तकार दिनांक 15 अक्टूबर 1955 को जिस भूमि का लगान देता था या उसने लगान देने का क़रार कर रखा था, वह काश्तकार उस भूमि का खातेदार काश्तकार हो गया। खातेदार काश्तकार तकनीकी रूप से भूमि का मालिक तो नहीं होता लेकिन खातेदारी भूमि मे उसके अधिकार क़रीब- क़रीब मालिक के समान ही हैं।
◆ यह अधिनियम लागू होते ही किसान वर्ग की क़िस्मत करवट लेने में सफ़ल हो गई। सदियों की जड़ता समाप्त हो चली। काश्तकार रात को सोया तब उसके द्वारा काश्त की जा रही भूमि का मालिक राजा, जागीरदार या खालसा की रियासती सरकार थी। किसान वर्ग के पास भूमि सम्बन्धी कोई हक़ नहीं थे। अधिनियम लागू होते ही काश्तकार जब सुबह जगा तो उसे पता चला कि अब ज़मीन की मालिक राजस्थान सरकार हो गई है तथा काश्तकार खुद खातेदार बन गया है। जमीन पर खातेदारी का हक़ किसान का हो जाना, यह किसान वर्ग के जीवन में आमूल- चूल परिवर्तन था। साइलेंट रेवोल्यूशन थी यह।
◆ खातेदारी अधिकार प्राप्ति के लिए काश्तकारों को किसी रक़म या मुआवज़े का भुगतान नहीं करना पड़ा। नेतृत्व और ब्यूरोक्रेसी का यह मानना था कि बिना मूल्य/ शुक्ल के काश्तकारों को भूमि का स्वामित्व सौंपना संभव नहीं होगा क्योंकि जागीरदारों को मुआवजा देना था। किंतु कुम्भाराम जी इस बात पर डटे रहे कि किसान को जमीन पर हक़ निःशुल्क मिलना चाहिए क्योंकि वह वर्षों से उस जमीन पर काबिज है। कुम्भाराम जी की जिद्द के कारण आख़िर फ़ैसला किसान वर्ग के हित में हुआ। जागीरदार को उसकी जागीर ज़ब्ती और मालिकाना हक समाप्ति का मुवावजा राज्य सरकार द्वारा भुगतान किया गया । जिन जागीरदारों के पास जोत के लिए भूमि नहीं रही, उन्हें सरकार ने सरकारी भूमि मे से भूमि उन्हें आंवटित की ।
◆ किसान वर्ग के लिए यह कमाल का एक्ट था। खातेदारी अधिकारों के लिए काश्तकारों को कुछ नहीं करना पडा। खातेदारी अधिकार कानून के प्रभाव से ही प्राप्त हो गये तथा पटवारी, तहसीलदार ने कानून को प्रभाव देने के लिए इन्तक़ाल द्वारा काश्तकार को रिकार्ड मे खातेदार दर्ज कर लिया।
किसान वर्ग के हितों के प्रबल समर्थक चौधरी साहब ने किसानों को खातेदारी का हक बिना मुआवजा के दिलाने के अलावा, खेतों के वृक्षों पर किसान को अधिकार दिलाने, सत्ता का विकेंद्रीकरण कर पंचायतों को अधिक अधिकार देने तथा सहकारी संस्थाओं को सुदृढ़ करने आदि जनहितकारी कई प्रमुख कार्य संपादित करवाए। राजस्थान में किसान वर्ग की दशा और दिशा में जो कुछ बेहतरी दिखाई दे रही है, उसका श्रेय चौधरी कुम्भाराम आर्य की कर्मठता की बदौलत किसान को खातेदारी का हक़ मिलने को दिया जाना न्यायोचित होगा।
वक़्त बीतने के साथ सीलिंग कानून, पंचायती राज कानून, सहकारिता, प्रशासनिक कार्य क्षमता आदि बातों पर मुख्यमंत्री सुखाड़िया के साथ आर्य जी के गंभीर मतभेद पैदा हो गए। अंततः चौधरी कुंभाराम आर्य ने फरवरी 1956 में मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके साथ ही उनके संघर्षमय जुझारू जीवन के एक अध्याय का पटाक्षेप हो गया और एक नए संघर्ष की शुरुआत हो गई।
कांग्रेस छोड़ने के बाद चौधरी कुंभाराम ने राजस्थान में जनता पार्टी का गठन किया और उसके संस्थापक अध्यक्ष बने। फरवरी 1967 में हुए चौथे आम चुनावों में किसी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। घटनाक्रम ने करवट ली। तत्कालीन राज्यपाल संपूर्णानंद ने कांग्रेस को अन्य दलों से बड़ा दल मानकर श्री मोहनलाल सुखाड़िया को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। विरोध ख़ूब हुआ। बाद में कुंभाराम जी ने जनता पार्टी को भारतीय क्रांति दल में समाहित कर दिया। वे दूसरी बार 1968 में भारतीय क्रांति दल की ओर से राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और 1974 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। सन 1980 में सीकर लोकसभा क्षेत्र से सातवीं लोकसभा के लिए लोकदल प्रत्याशी के रूप में विजयी हुए।
चौधरी कुम्भाराम आर्य ने लंबी राजनीतिक यात्रा में उन्होंने अनेक पड़ाव किये, हर पड़ाव पर साज़िश का शिकार हुए, उनके राजनीतिक जीवन की राह कंटकाकीर्ण रही। विभिन्न पार्टियों में अपने प्रखर व्यक्तित्व की छाप छोड़ी। साहस की मशाल जलाकर जिंदगी भर अंधेरे से जूझते रहे। कभी थके नहीं, कभी रुके नहीं, कभी हिम्मत नहीं हारी। उठापटक, द्वंद्व, संघर्ष का यह दौर मृत्यु तक चलता रहा। बाल्यकाल में गरीबी और अभावों से जूझना पड़ा, जवानी संकटों से लड़ते गुजरी, प्रौढ़ावस्था में राजनीति के घात-प्रतिघात के झँझावत को दिलेरी से सहा, जीवन की संध्या में एक दार्शनिक की स्थितप्रज्ञता को आत्मसात कर उतार- चढ़ाव को बिना किसी शिकायत के स्वीकार किया।
चौधरी कुंभाराम आर्य के निराले कथन :-
चौधरी कुम्भाराम आमजन को अपनी बात आमजन की शब्दावली का इस्तेमाल कर प्रभावी ढंग से समझा देते थे। उनके कुछ लोकप्रिय कथन ये हैं:-
◆ शोषण वह अमरबेल है जो एक बार किसी पेड़ के चिपकने के बाद उस पेड़ को बढ़ने नहीं देती। हिंदुस्तान में किसान व मजदूर दोनों सदियों से शोषित हैं। मेहनत व उत्पादन वे करते हैं पर उसका फल अमीर हड़प लेते हैं। शोषकों का चक्रव्यू तभी टूटेगा जब किसान वर्ग संगठित होकर शासक वर्ग को अपनी शक्ति रूपी लाठी से हांकेगा। सरकारें अमीर वर्ग की हितसाधक होती हैं जबकि किसान को मात्र घोषणाओं के द्वारा खुश करती रहती हैं।
◆ कानून इंसान से बड़ा नहीं है। बदलते जमाने की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कानून में संशोधन एवं बदलाव जरूरी है।
उलझी हुई समस्या को सुलझाने में कुम्भाराम जी माहिर थे। किसी पार्थी के काम विशेष के बारे में अधिकारी जब उनसे कहते थे कि यह कार्य नियमानुसार नहीं है तब चौधरी जी फाइल पर लिख देते थे कि नियम बदल दिया जावे और प्रार्थी का काम कर दिया जावे।
◆ राज्य व्यवस्था तो गन्ने के डण्ठल के समान है, जो संगठन शक्ति के दांत वालों के लिए तो रस भरा है परंतु बिना दांत वालों असंगठितों के लिए तो बांस की लाठी के समान है।
◆ जागृत एवं संगठित जनशक्ति का राजव्यवस्था/ सरकार पर जब दबाव एवं प्रभाव बराबर बना रहता है, तभी सरकार जनहित में जन कल्याणकारी ढंग से संचालित रहती है।
◆ मानव जितना प्रकृति से दूर रहेगा उतना ही दुखी रहेगा। अतः प्रकृति के समीप रहकर स्वतंत्र चिंतन करना जरूरी है।
राजस्थान के निर्माण और विकास में चौधरी साहब का योगदान अतुलनीय है। कुम्भाराम जी ठेठ देहाती परिवेश से उठकर राष्ट्रीय राजनीति के स्तर तक अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करने वाले कुछ गिने- चुने नेताओं में शामिल थे। डॉ लोहिया ने अपनी एक पुस्तक में चौधरी कुंभाराम की प्रशंसा करते हुए उन्हें ‘धरती पुत्र’ की संज्ञा दी थी। सादा जीवन और उच्च विचार के वे मूर्तिमान रूप थे। दीर्घकाल तक चौधरी कुंभाराम जी के निकट संपर्क में रहे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत ने चौधरी साहब को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था “स्वर्गीय आर्य राज्य के स्वतंत्रता सेनानी एवं अग्रणी किसान नेता और जुझारू जनप्रतिनिधि थे, जिन्होंने सभी वर्गों , विशेषकर किसानों, के हितों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। समाज, प्रदेश एवं देश की समस्याओं के समाधान के प्रति उनका मौलिक एवं प्रखर चिंतन था। वे सदैव जन आकांक्षाओं से जुड़े रहे। सामान्य जीवन में धरातल से जुड़े लोगों तक उनकी गहरी पैठ होने के कारण उनकी सूझबूझ एवं बुद्धिमता अपूर्व थी। राजनीति में सक्रिय रहते हुए भी निरंतर अध्ययनशील रहना उनकी प्रकृति में शामिल था”
*हरीराम जाट*
*नसीराबाद,अजमेर(राज.)*
*𝟵𝟰𝟲𝟭𝟯-𝟳𝟲𝟵𝟳𝟵*
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