तेजल ज्ञान मथुरा। हमेशा आर्थिक शब्द पर ज़ोर देना चाहिए, क्योंकि एक परिवार होना, भाई – बहन, काका – ताऊ जैसे रिश्ते होने, एक गाँव होना, बाईस – चौबीस गाँवों की एक पट्टी होना आदि आदि आर्थिक व्यवहार पहले हैं, सामाजिक तो ये एक लंबे, सफल अभ्यास के बाद बने हैं !
जब मानव अस्तित्व में आया तो उसका कोई आर्थिक व्यवहार नहीं था ! कंदमूल खाये, पत्ते लपेटे, मनमर्ज़ी का सेक्स किया और छाँव ढूँढ कर पड़ गया ! लेकिन जब उसने खेती, सामूहिक शिकार और सामूहिक संग्रहण की खोज की; तो उसको एक परिवार की ज़रूरत महसूस हुई! औरत को परिवार की ज़रूरत थी कि वह अपने गर्भ की सुरक्षा और सम्भाल चाहती थी, जबकि मर्द को परिवार की ज़रूरत थी कि वह अपने शिकार, संग्रहण और अनाज की सुरक्षा चाहता था! उसको अपनी मेहनत की सुरक्षा गारंटी परिवार जैसी अर्थव्यवस्था की सृजना में दिखी ! परिवार उसके लिए अनाज पैदा करता था, उसके लिए एक सुरक्षा परत का काम करता था, जिसकी झलक आज भी देखने को मिलती है !
जब पारिवारिक समूह बड़ा हुआ तो श्रम का बँटवारा करके गाँव का सृजन किया गया, यह भी एक आर्थिक व्यवहार था! गाँव को एक अर्थव्यवस्था माना गया, जिसमें संसाधनों के समान वितरण के लिए सामाजिक उत्पादन में हरेक उत्पादक परिवार को बराबर का प्रतिनिधित्व दिया गया ! जिससे खाती (बढई), लुहार, कुम्हार जैसे कारीगर समूह पैदा हुए। समय के प्रवाह में आगे चलकर नाई, तेली, धोबी जैसे कारीगर समूह पैदा हुए !
इस ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बांध कर रखने के लिए भाईचारा शब्द अस्तित्व में आया ! आप नज़दीकी रिश्तों या अपने ही गाँव में शादी नहीं कर सकते थे, क्योंकि नज़दीकी रिश्तों और अपने ही गाँव में सेक्स ईज़ली अवेलेबल होता है, सेक्स के पीछे पागलपन, सामाजिक उत्पादन में बाधा डालता है ! इसीलिए एक लंबे अभ्यास के बाद, एक ही परिवार और गाँव में भाई बहन होना एक आर्थिक व्यवहार से सामाजिक व्यवहार बना !
किसान की बेटी को लौहार के साथ शादी करने की इजाज़त इसीलिए नहीं थी, क्योंकि औरत भी सामाजिक उत्पादन में बराबर की सहायक थी, किसान की बेटी खेती जानती थी और लौहार की बेटी लौह – लंगड़ पीटना !
खेती करने वाले की बेटी लौह – लँगड़ का काम नहीं कर सकती थी। इसलिए सामाजिक उत्पादन सुचारू रूप से चलने के लिए ज़रूरी था कि अपने – अपने पेशे में शादी हो!
रही बात गोत्र की, तो गोत्र को लेकर हमारे बुजुर्ग इतने ज़्यादा प्रैक्टिकल थे कि जब एक गोत्र इतना बड़ा हो जाता था कि उसके लड़के लड़कियों की शादियाँ होनी मुश्किल हो जाएँ, तो बुजुर्ग उसमें से एक नया गोत निकाल लेते थे ! ऐसी कितनी ही मिसालें हैं कि एक गोत से दूसरा गोत निकला और कालांतर में दोनों ने वैवाहिक संबंध भी बनाए !
लेकिन अब फर्जी योद्धाओं और महापुरुषों की इतनी झूठी कहानियाँ गोत्र के साथ जोड़ दी गई हैं कि कोई भी पुराना गोत्र छोड़कर, नया बनाने में अपना भारी नुक़सान महसूस करता है कि फिर अमुक योद्धा को ख़ुद से जोड़कर फील कैसे लेंगे !
हमारे बुजुर्ग सामाजिक मुद्दों पर चिंतन करते थे, उन्होंने अपनी औरतों से पूछा कि उनका शरीर किस उम्र में आकर यौन संबंधों की माँग करता है, इसलिए उन्होंने शारीरिक परिवर्तन होते ही लड़की की शादी करने की अवधि को निश्चित किया ! वे मंथन करते थे कि बणी के लिए कितनी धरती सही रहेगी और खेती के लिए कितनी!
वे मंथन करते थे कि पानी का लिकाड़ किस दिशा में है तो जहाँ गड्ढे या नाली खोदी जाए !
वे व्यवहारिक लोग थे, सोचते थे और विचार-विमर्श करते थे !
हम अक्षरज्ञानी हो गये तो हमने सोचने का काम भी सरकार पे छोड़ दिया ! अब सरकार को ग्रामीण तानेबाने में बुराई नज़र आती है तो उसके साथ – साथ हमारे अक्षरज्ञानियों को भी आने लगी ! इन्हें याद रखना चाहिए कि वे जितना ज़्यादा ग्रामीण तानेबाने को कोसेंगे, उतना ही सरकारी ग़ुलामी में धंसते चले जाएँगे ! फिर कल को अगर कोई कारखानेदार तुम्हारी धरती उड़ा ले जाए तो भी अफ़सोस ना करना क्योंकि फ़ैसले के वक़्त तुम उसी के पाले में खड़े थे !
डा: कृष्ण पाल सिंह तेवतिया
प्रवक्ता भौतिकी, मथुरा ।
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